Tuesday, August 27, 2013

Bilada - Munificent King Bali and Holy City Of Shri Aai Mata ji


Munificent King Bali and Holy Land Of Shri Aai Mata ji 











वर्तमान तो सदैव मनुष्य के नेत्रों के सम्मुख रहता ही है, जिसके सहारे वह भविश्य की भी कल्पनाऐ करता रहता है लेकिन जब उसे अतीत की ओर झांकना पड़ता है, तब उसे �इतिहास� नामक आश्रय की �शरण में जाना पड़ता हैं। किसी भी जाति-धर्म, भाशा-सभ्यता, संस्कृति व देष के अतीत के उत्थान-पतन को हम इतिहास के आइने मे ही देख सकते है। बोली घटनाओं का सच्चा वृतान्त ही इतिहास है। 



मानव जाति के उद्गम एवं विकास की कहानी अभी तक पहेली बनी हुई है। एक ओर जहॉ विभिन्न धर्मावलम्बी अपने-अपने धर्म एवं दशर्न के अनुसार व्याख्या कर इतिहास लिखते है तो दूसरी ओर वैज्ञानिक लोग पुरातत्त्व विज्ञान का सहारा लेकर अपने अथक प्रयासों से प्रमाण जुटाकर विषुद्ध वैज्ञानिक दृश्टि कोण के अनुरूप एक कोषिक से बहुकोषिक जन्तुओ के विकास की श्रृंखला में मानव जाति की उत्पत्ति एवं विकास के नये इतिहास का सूत्रपात करते हैं। जो भावी पीढ़ी के लिए चिन्तन का पथ-प्रशस्त करता हैं।



मानव जाति की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं समाज का इतिहास भी पहेली बना हुआ है। मानव की उत्पत्ति के इतिहास की भॉति ही हर जाति एवं उपजाति की उत्पत्ति का इतिहास भी एक गूढ़ रहस्य बना हुआ है। विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के बारे मंे या तो इतिहास मौन है या इतिहासकारों ने आपसी विवादों और तर्क - वितर्कों का ऐसा अखाड़ा बना रखा है कि इस प्रकार के विभिन्न मत मातान्तरों का अध्ययन करने पर भी सच्चाई तक पहुंच पाना दुर्लभ नही कठीन अवष्य है। उदाहरण के तौर पर राजपूत जाति की उत्पत्ति एवं विकास को ही लें, इस पर भी इतिहासकार एकमत नही हैं। कुछ इतिहासकार इन्हें वैदिक कालीन क्षत्रियों की ही संतान मानते है तो कुछ मुनि वशिष्ठ के द्वारा आबू पर्वत पर किये गए हवन कुण्ड से इनकी उत्पत्ति मानते है। इतना ही नहीं इन्हें विदेशी मानते है तो कुछ इन्हें विदेशी एवं देशी लोगों की मिली-जुली जाति मानते हैं। अगर हम हमारे देश के प्राचीन इतिहास को उठाकर देखें तो वैदिक काल में यहा पर कोई जाति प्रथा नहीं थी। समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चार वणों ब्राह्मण, क्षेत्रिय, वैष्य, �शूद्र में बॉंटा गया था यह वर्ण व्यवस्था व्यक्ति के जन्म संस्कारो पर आधारित न होकर कर्म संस्करों पर आधारित थी। सच ही कहा है- व्यक्ति जन्म से नहीं , कर्म से महान बनता है।




एक �शूद्र का पुत्र भी अपने महान् कर्मो एवं ज्ञानार्जन से ब्राह्मण बन सकता था। एक ब्राह्मण का पुत्र अपने तुच्छ एवं नीच कर्मों से �शूद्र बन सकता था। परन्तु कालान्तर में यह वर्ण व्यवस्था भी जन्म पर आधारित होने लगी। जिसके कारण समाज व्यवस्था स्थायी जातियों में बंट कर रह गयीं। जो विभिन्न व्यवसायों एवं वैचारिक मतभेदों के कारण विभिन्न जातियों में बंटती गयी। कालान्तर में इन जातियों के जातिय बंधन इतने प्रबल हो गए कि आज चाहते हुए भी नहीं टूटते तथा व्यक्ति सामाजिक नियमों में परतन्त्र होकर रह गया है।



जाति व्यवस्था यह ढांचा समय, परिस्थितियों, प्राकृतिक विपदाओं अतिवृश्टि, अनावृश्टि, महामारी बाहरी आक्रमणों एवं विभिन्न धर्म एवं मत के प्रचारकों एवं पंथ के सृजनों से विभिन्न उपजातियों में बंटता गया। जाति व्यवस्था का यह ढांचा 10 वीं �शताब्दी से ज्यादा प्रभावित हुआ। 10 वीं �शताब्दी में कई विदेशी आक्रमणकारी आंधी की भॉति आए एवं यहां की अपार धन सम्पदा को लूटकर, सामाजिक व्यवस्था एवं धार्मिक भावना को छिन्न-भिन्न कर तूफान की भॉति वापस चले गये। इससे भी ज्यादा उन विदषी जातियों ने हमारी प्राचीन व्यवस्था को प्रभावित किया, जो यहां अपने धर्म एवं �शासन का विस्तार करने के लिए स्थायी रुप से निवास करने लगे। इस प्रकार जातियों एवं उपजातियों के बनने एवं बिगड़ने का क्रम निरन्तर चलता रहा। कुछ ऐसे पराक्रमी, �शूरवीर एवं युग पुरुष भी हुए, जिन्होंने अपने बाहुबल एवं पराक्रम से प्रचलित समाज व्यवस्था के अनुकुल न बनकर, समाज व्यवस्था को अपने अनुकूल बनाया। दूसरी तरफ से कुछ ऐसे संत, दार्षनिक, योगी महापुरूश भी हुए, जिन्होंने अपने उपदेष एवं विचारों से समाज के कलेवर को ही बदल दिया और अपनी ओर से नवीनता देने का प्रयास किया। इस प्रकार किसी जाति की उत्पत्ति के बारे में प्रामाणिकता का दावा नहीं किया जा सकता। फिर भी उपलब्ध प्राचीन इतिहास, साहित्य,शिलालेख, भित्तिचित्र पौराणिक गाथाएं, भाट-चारणों के पास उपलब्ध इतिहास, दन्तकथाएं एवं किंवदन्तियों के आधार पर किसी जाति की उत्पत्ति एवं विकास के इतिहास तक पहुंचा जा सकता है। सारांश रूप में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि सभी जातियों एवं उपजातियों का उद्गम वैदिककालीन आर्यों की समाज व्यवस्था के चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष्य, �शूद्र ही रही है। तो हम सभी मूल रूप से आर्यों की ही सन्तान है।

उपलब्ध प्राचीन इतिहास का अध्ययन करने से पता चलता है कि �� सीरवी जाति �� का उद्गम भी वैदिक क्षैत्रिय राजपूत जाति से ही हुआ है। हमारी जाति की जो 24 गौत्र ( खापें ) हैं वह क्षत्रिय राजपूतों से मिलती है तथा सीरवी जाति का उपलब्ध प्राचीन इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण है कि हमारे पूर्वज क्षत्रिय राजपूत ही थे। 12 वीं �शताब्दी में भारत में राजतंत्रीय �शासन व्यवस्था चल रही थी। विभिन्न राज्यों में अलग-अलग राजा लोग अपना-अपना �शासन चला रहे थे। वे बहुत ही महत्वाकांक्षी होते थे। जिनके कारण आपस में लड़ते रहते थे। ऐसी रियासतें गुजरात राज्य में भी थीं। वहां के �शासक भी राज्य विस्तार एवं आपसी मन-मुटाव के कारण युद्धरत थे। सीरवी जाति के इतिहास से यह पता चलता है कि गुजरात प्रान्त में जूनागढ़ एवं राजकोट के बीच एक राज्य सम्भवतः गिरनार के राजा का अपने पड़ौस के किसी राजा से एक बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें हजारों सैनिक रण क्षेत्र में खेत रहे एवं अपार जान माल की क्षति हुई। जो क्षत्रिय बच गए थे, उन्होंने गुजरात को ही त्याग दिया एवं राजपूताना प्रान्त की ओर चल पड़े और जालोर राज्य, जो गुजरात की सीमा पर ही था, में आकर बस गये। उस समय जालोर पर चौहान वंषीय राजा कान्हड़देव सोनगरा का �शासन था ये 24 गोत्रिय राजपूत गुजरात प्रान्त के खारी-खाबड़ क्षेत्र से आये थे। अतः वे खारड़िया राजपूत कहलायें। इन्होंने कृषि को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था। इस कारण राजा कान्हड़देव ने इन लोगों को खेती व्यवसाय हेतु अपने राज्य में बसने की अनुमति प्रदान की एवं उनसें पैदावार का 9वां हिस्सा राजकोश में देने का ताम्बा-पत्र स्थायी लिखित आदेष जारी किया। इन 24 खापों के राजपूत ने जालौर के आस-पास 24 खेड़ो (गांवो) को बसाया। जो निम्न है-1.कूदणी खेड़ा 2. गोखर खेड़ा 3. बीठू खेड़ा 5. पादरला खेड़ा 6.कुरजडिया़ खेड़ा 7. थूंबड़िया खेड़ा 8. उसदड़ा खेड़ा 10. आकोर खेड़ा 11.नरवर खेड़ा 12. जेतपुरा खेड़ा 13.मण्डला खेड़ा 14. वीठला खेड़ा 15. जोगणी खेड़ा 16.लांबिया खेड़ा 17. हिंगोला खेड़ा 18.केरला खेड़ा 19. मानपुरा खेड़ा 20. नगवाली खेड़ा 21.लेटोंरा खेड़ा 22. बागोदरा खेड़ा 23. मूलोरा खेड़ा 24. आकांरा थंूब।

कुछ इतिहासकारों का इनसें भिन्न मत है। मुंषी देवी प्रसाद कृत मारवाड़ मर्दुमषुमारी रिपोर्ट सन् 1891 के अनुसार खारड़िया राजपूत जालोर के निवासी ही थे। खारी क्षेत्र में निवास करने के कारण ही इन्हें खारड़िया राजपूत कहा जाता था। इन्हीं खारड़िया राजपूतों का �शासन जालोर पर था तथा राजा कान्हड़देव, जो चैहान वंषीय था, इन्ही में से था। ये 24 खाप के खारड़िया राजपूत जिनकी 24 निम्न गौत्र थी-

1.राठौड़ 2. सोलंकी 3. गहलोत 4. पंवार 5. काग 6. बरफा 7. देवड़ा 8. चोयल 9. भायल 10. सैंणचा 11. आगलेचा 12. पड़ियार 13. हाम्बड़ 14. सीन्दड़ा 15. चैहान 16. खण्डाला 17. सातपुरा 18. मोगरेचा 19. पड़ियारिया 20. लचेटा 21. चावंड़िया 22.भूंभड़िया 23. मुलेवा 24. सेपटा

12वीं �शाताब्दी मे हिन्दू समाज दोहरी मार से पीड़ित था। एक ओर तो देशी राजा आपस में लड़-भिड़ कर अपनी �शक्ति नश्ट कर रहे थे तो दूसरी ओर विदेशी यवन मुसलमान एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में धर्म की पताका लिए इस्लाम धर्म का प्रचार कर रहे थे। ये लोग अपने साम्राज्य विस्तार के साथ हिन्दुओं को जबरन मुस्लमान बनाते थे। जो हिन्दू लोग इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करते थे तो उन्हें मुस्लिम �शासकों को जजिया देना पड़ता था या फिर युद्ध करना होता था। जब विक्रम सम्वत् 1368 में अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर आक्रमण किया तब खारड़िया राजपूत कान्हाड़देव बड़ी बहादूरी से लड़े। परन्तु बादशाह की सेना संख्या में कई गुना अधिक थी एवं अच्छे हथियारों से सुसज्जित थी, जबकि राजपूतों की संख्या कम एवं साधन सीमित थे। फिर भी उन्होंने काफी दिन तक बादशाह की सेना का बडी वीरता से सामना किया। लम्बे समय तक युद्ध चलते रहने के कारण जालोर के किले में रसद सामग्री खत्म होने लगी। बाहर से रसद सामग्री आने के सभी रास्ते बन्द थे। अतः वैशाख सुद 5 विक्रम संवत 1368 को खारड़िया राजपूतों ने ��साका�� किया । जो इतिहास में जालोर के ��साका�� के नाम से प्रसिद्ध है। जिसकी प्रसिद्धि को कवियों ने अपनी बोली में इस प्रकार कहा-��
आभ फटे, धरा उल्टे, कटे बगत रा कौर ।
सिर कटे, धड़ तड़फड़े, जद छूटे जालोर ।।

राजपूत लोग लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए और जालोर के किले पर खिलजी का अधिकार हो गया। उन्होंने हिन्दू प्रजा से उपज के नौंवे भाग की बजाय जजिया फसल का आधा हिस्सा वसूलना �शुरू किया। अतः इससे दुखी होकर बचे हुए खारड़िया राजपूतों ने 600 बैलगाड़ियों मे अपना सामान लादकर पाली व जोधपुर जिले की तरफ प्रस्थान किया और लूनी नदी के आस-पास के क्षेत्र में जहॉं सिंचाई के पानी की पर्याप्त सुविधा थी, वहॉ बस गये। ये लोग यहॉ पर पूर्व में बसे जणवों के साथ सीर साझे में खेती करने के कारण सीरवी कहलाये। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन खारड़िया राजपूतों ने तलवार का मोह त्याग कर वर्षों से बंजर पड़ी भूमि को अपने हाथों से हल चलाकर उपजाऊ बनाया। फिर यही खेती इनका मुख्य व्यवसाय बन गया। जिस-जिस क्षेत्र में उपजाऊ जमीन व सिंचाईं की सुविधा उपलब्ध थी। वहां-वहां ये लोग बढ़ते एवं बसते गये । अपने परिश्रम लगन एवं ईमानदारी से इस व्यवसाय के प्रति समर्पित हो जाने के कारण एक आदर्श किसान के रूप में इनकी ख्याति चारों ओर फेलने लगी। जिस कारण ये लोग जिस गॉंव मे खेती करने जाते, वहां के जागीरदार इन्हें बड़ी इज्जत एवं आदरपूर्वक पैदावार बढ़ाने की सभी सुविधाएं मुहैया कराते तथा विपत्ति में इनकी हर सम्भव सहायता भी करते थे। 

विक्रम संवत 1472 में गुजरात प्रदेष में अम्बापुर में बीकाजी डाबी के यहां अवतार धारण करने वाली ��जीजी��, जो अपने ��आई-पंथ�� का प्रचार करती हुई गोडवाड़ एवं मारवाड़ क्षेत्रों में आई, तब अधिकांश संख्या में सीरवी जाति के लोग उनके सच्चे भक्त बन गये। श्री आईजी ने उन्हें डोरा बंध बनाकर अपने ��आई-पंथ�� में इन्हें दीक्षा दी। सीरवी समाज वालों ने श्री आईजी को अपनी ईश्ट देवी मान लिया। जब देवी वि.स. 1521 में बिलाड़ा पधारी एवं सीरवी जाणौजी राठौड़ के पौत्र एवं माधवदास के पुत्र गोयन्ददास को अपनी गादी का प्रथम दीवान नियुक्त कर अखण्ड-ज्योति की स्थापना की, उसी परम्परा का सीरवी लोग आज भी पालन कर रहे है और नित्य प्रति अखण्ड-ज्योति की पूजा करते है। इतना ही नहीं आई-पंथ का प्रचार करने के लिए उन्होंने धर्मरथ बनवाकर उसमें स्वयं विराजमान होकर गांव-गांव भ्रमण किया एवं जन-साधारण का अपनें सदुपदेशों सें उद्धार किया। 

समय-समय पर पड़ने वाले अकालों के कारण सीरवी जाति के लोग जीवीकोपार्जन हेतु मध्यप्रदेश में मालवा, निमाड़, इन्दौर, ग्वालियर, रतलाम में जाकर बस गये। जिनकी संख्या आज वहां पर हजारों में है। वहां पर भी वे लोग आई के बतायें नियमों का पालन करते है तथा देवी के सच्चे भक्त हैं। आईजी द्वारा स्थापित दीवान पद को न केवल सीरवी जाति के लोग मानते है अपितु अन्य जातियों के लोग भी इनका आदर करते है। इतना ही नही विभिन्न रियासतो जैसे-जोधपुर, बाड़मेर, अजमेर, इन्दौर, रतलाम, ग्वालियर, मेवाड़, उदयपुर के �शासकों ने भी दीवान पद को अपने समान स्तर का स्थान देकर आदर किया। समय-समय पर ��श्री आईजी�� के मन्दिर हेतु अपने राज्य में भूमि दान देकर इनकी इज्जत की। जब सन् 1676 को जोधपुर नरेश महाराजा जसवंतसिंह बादशाह औंरगजेब के आदेशानुसार काबुल में अफगानों के विद्रोह को दबाने गये तब दीवान साहब ने सीरवी जाति की ओर से अन्न-धन की भरपूर मदद की। जिनसे प्रसन्न होकर स्वयं महाराजा जसवन्त सिंह ने दीवानपद की गरिमा को यह दोहा कहकर बढ़ाई। 


�इक घर रिया �शाह रो, दूजो बिलाड़ा दीवान।
आधा में मरूधर बसे, श्री जसवंत मुख फरमान।।











Monday, August 26, 2013

Baliraj Garh (Bilara)



There are competing stories about the origin of the name Bilara. One is that it comes from the Persian word bilor which means "diamond", which is also used in Urdu and Punjabi languages for "something which is extremely glittery". The second story, is that it was named after a former ruler, the legendary Raja Bali, as "Place of Bali Raja", similarly to Balirajgarh which means "Fort (garh) of Bali Raja".




Bali, Mahabali also known as Bali or Māveli was a benevolent Dalit King, and the grandson of Prahlada in Indian scriptures. being sent down to the underworld Sutala by Vamana, the fifth avatar of Vishnu.

Bali, a Dalit-Bahujan king, an Asura,, was the son of Devamba and Virochana. He grew up under the tutelage of his grandfather, Prahlada, who instilled in him a strong sense of righteousness and devotion.
Bali would eventually succeed his grandfather as the king of the Asuras, and his reign over the realm was characterized by peace and prosperity. He would later expand his realm – bringing the entire world under his benevolent rule – and was even able to conquer the underworld and Heaven, which he wrested from Indra and the Devas. The Devas, after their defeat at the hands of Bali, approached their patron Vishnu and entreated him to restore their lordship over Heaven.
In Heaven, Bali, on the advice of his guru and advisor, Sukracharya, had begun the Ashwamedha Yaga so as to maintain his rule over the three worlds. Vishnu, meanwhile, had adopted the avatar of Vamana, a small Brahmin boy, and, during the rite, approached Bali and requested a grant of land – although only as much land as he could cover with three paces.


Despite the warnings of his advisor, Bali granted this boon. Vamana then grew to an immense size, and, with his first pace, traversed the all of the earth and the underworld. With his second pace, he covered Heaven in its entirety. Admitting defeat, and seeing that Vamana has no more room for his last step, Bali offered his own head as a stepping-stone. At this time the asuras spoke out in protest, but Bali explained that all living and non living things are God's creation, and so it was God's right to have them back. Lord Vishnu, seeing the devotion of Mahabali, blessed him and raised to him to Suthala, the supreme position in heaven